भारतीय समाज में नारी की भूमिका !!
भारतीय समाज में नारी की भूमिका :- सदियों से ही भारतीय समाज में नारी की अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका रही है । उसी के बलबूते पर भारतीय समाज खड़ा है । नारी ने भिन्न-भिन्न रूपों में अत्यधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है । चाहे वह सीता हो, झांसी की रानी, इन्दिरा गाँधी हो, सरोजनी नायडू हो ।

इतना सब होने पर
भी वह प्रतिदिन अत्याचारों एवं शोषण का शिकार हो रही है । मानवीय क्रूरता एवं
हिंसा से ग्रसित है । यदि वह शिक्षित है,
हर क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है
तथा आवश्यकता इस बात की है कि उसे वास्तव में सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय प्रदान किया जाये । ताकि समाज
में बदलाव आये और इसकी भूमिका को लोग अच्छी तरह से समझे !

सदियों से समय की
धार पर चलती नारी अनेक विडंबनाओं के बीच जीती आ रही है ! और समाज के साथ चलती आ
रही है कई रूपों में उसने अपने आप को ढला है कभी भोग्या, सहचरी, सहधर्मिणी,
माँ, बहन एवं अर्धांगिनी इन सभी रूपों में उसका शोषित और दमित स्वरूप देखते है । हर
चुनौती को अपनाकर वह आगे बढ़ती है अपने सुख दुःख भूलकर सबका ख्याल करना अपनी
दुर्दशा को न देखकर दूसरों के लिए बलिदान देती आयी है स्त्री !
आज समाज में
पुरुष के साथ कंधे से कंधे मिलाती आ रही है किसी भी तरह के कार्यों में पीछे नहीं
है बल्कि एक स्त्री जितना काम कर सकती है वही काम एक पुरुष हिचकिचाता है !लेकिन
देखा जाये तो समाज में अभी भी इन सब को स्वीकारा नहीं गया है सामाजिक स्थिति में ये
आज भी 'न' के बराबर है
समय के बदलाव के
साथ नारी दशा में अब बहुत परिवर्तन आ गया है। यों तो नारी को प्राचीनकाल से अब तक
भार्या के रूप में रही है। इसके लिए उसे गृहस्थी के मुख्य कार्यों में विवश किया
गया, जैसे- भोजन बनाना,
बाल बच्चों की देखभाल करना, पति की सेवा करना। पति की हर भूख को शान्त करने
के लिए विवश होती हुई अमानवता का शिकार बनकर क्रय विक्रय की वस्तु भी बन जाना भी
अब नारी जीवन का एक विशेष अंग बन गया।
घर की जिम्मेदारी
निभाने वाली महिलाओं से ये पुरुष प्रधान समाज चाहता है !! मुट्ठीभर आसमान और धरती
का अक्श समेटे भारतीय स्त्री ने आँगन की भीतियों को लाल गेरुओं से पोतकर बड़ा बड़ा स
लिख दिया है
विश्वास रजन नग, पग तल में।
कवि जय शंकर
प्रसाद ने स्त्रियों की महत्ता का बोध समाज को अपनी इन पंक्तियों से कराया- नारी
तुम केवल श्रद्धा हो , विश्वास रजत नग, पग तल में| पियूष स्रोत सी बहा करो, जीवन के सुन्दर समतल में||
साहित्यकारों ने
स्त्री की ममता, वात्सल्य, राष्ट्र के निर्माण में
योगदान देने वाले गुणों के महत्व को समाज को समझाया और उनकी महत्ता के प्रति जागरूक
किया|
अनेक समाज
सुधारकों ने उनकी दशा सुधारने के लिए सकारात्मक प्रयास किया| स्वामी दयानंद ने स्त्री-शिक्षा पर बल दिया, बाल-विवाह के विरूद्ध
आवाज उठाई| राजा राम मोहन राय ने सती-प्रथा बंद कराने के
लिए संघर्ष किया| परिणामस्वरूप सन १९२९ में बाल विवाह निरोधक अधिनियम
द्वारा बाल विवाह का कानूनी रूप से अंत कर दिया गया, अब कोई भी माता-पिता लड़की
का विवाह १८ वर्ष की आयु से पहले नहीं कर सकता|
1. माँ के रूप में अपना कर्तव्य :– मानव कल्याण की भावना ,कर्तव्य ,सृजनशीलता एवं ममता को सर्वोपरि मानते हुए महिलाओं ने इस जगत में माँ के रूप में अपनी सर्वोपरि भूमिका को निभाते हुए राष्ट्र-निर्माण और विकास में अपना विशेष दायित्वों का निर्वहन किया है | बच्चों को जन्म देकर उनका पालन-पोषण करते हुए उनमें संस्कार और सद्गुणों का उच्चतम विकास करती हैं तथा राष्ट्र के प्रति उनकी जिम्मेदारी को सुनिश्चित करती हैं ताकि राष्ट्र निर्माण और विकास निर्बाध गति से होता रहे | वीर भगतसिंह , चन्द्रशेखर , विवेकानन्द जैसी विभूतियों का देशहित में अवतार “माँ ” के स्वरूप की ही देन है | माता जीजाबाई , जयवंताबाई , पन्नाधाय जैसी अनेक माताओं का त्याग ,समर्पण और बलिदान आज भी इतिहास के स्वर्णिम पन्नों पर अंकित है | माँ ही है , जो बहुआयामी व्यक्तित्व का निर्माण और विकास करती है , जो राष्ट्र- निर्माण के लिए आवश्यक है | नेपोलियन बोनापार्ट ने “माँ” की गरिमा को समझते हुए कहा था कि –मुझे एक योग्य माता दो ,मैं तुम्हें एक योग्य राष्ट्र दूँगा | इस कथन से माँ के स्वरूप का राष्ट्र-निर्माण और विकास में अतुलनीय योगदान छिपा है |
2 पत्नी के रूप में कर्तव्य :– माँ के पश्चात पत्नी का अवतार राष्ट्र-निर्माण और विकास में महत्ती भूमिका निभाता है | पत्नी चाहे तो पति को गुणवान और सद्गुणी बना सकती है | सदियों से देखने में आया है , कि जब भी देश पर संकट आया है तो पत्नियों ने ही अपने शौहर के माथे पर तिलक लगाकर जोश, जूनून और विश्वास के साथ रणभूमि में भेजा है | यही नहीं पत्नी ही “हाड़ी” बनकर शीश काटकर दे देती है | साहित्य समाज का दर्पण होता है …. जो कि राष्ट्र-निर्माण और विकास में योगदान देता है | इस योगदान की और पत्नियों का अहम योगदान देखा जा सकता है | उदाहरण के लिए — तुलसीदास जी के जीवन को आध्यात्मिक चेतना प्रदान करने में उनकी पत्नी “रत्नावली” का ही बुद्धि-चातुर्य था | “विद्योत्तमा” ने कालीदास को संस्कृत का प्रकांड महाकवि बनाया था | हम छोटी सी बात का जिक्र करें तो यह बेमानी नहीं होगा कि पति को भ्रष्टाचार ,बेईमानी ,लूट ,गबन इत्यादि , जो कि राष्ट्र को खोखला बनाते हैं ,जैसे कुकृत्यों से पत्नी ही दूर रखती है ,जो कि देश की अर्थव्यवस्था के विकास के लिए सही भी है |

4 संस्कृति, संस्कार और परम्पराओं की संरक्षिका के रूप में कर्तव्य :– महिलाऐं ही संस्कृति, संस्कार और परम्पराओं की
वास्तविक संरक्षिका होती हैं | वे पीढ़ी दर पीढ़ी इनका संचारण और संरक्षण करती
रहती हैं , सम्पूर्ण विश्व में भारत को विश्वगुरू का दर्जा
दिलाने में महिलाओं की ही भूमिका रही है | यही कारण है कि भारत को
संस्कृति और परम्पराओं का देश कहा जाता है |
५.
सामाजिक-शैक्षिक-धार्मिक योगदान :– सभ्यता ,संस्कृति ,संस्कार और परम्परा महिलाओं के कारण ही एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी मे
हस्तान्तरित होती हैं | अत : महिलाओं के सामाजिक-शैक्षिक-धार्मिक कार्य
व्यक्ति ,परिवार ,समाज और राष्ट्र को सशक्त बनाते हैं | कहा भी गया है कि — सशक्त महिला , सशक्त समाज की आधारशिला
है | माता बच्चे की प्रथम शिक्षक है , जो बच्चे के सर्वांगीण विकास के लिए उत्तरदायी है | जब यह शिक्षिका परिवार से निकलकर समाज में शिक्षा का दान करती है तो यह एक
सर्वोत्तम और पावन कार्य हो जाता है | देश की प्रथम शिक्षिका ” सावित्री बाई फुले ” एक अनुकरणीय उदाहरण है | वैदिक सभ्यता की मैत्रेयी ,
गार्गी , विश्ववारा , लोपामुद्रा ,घोषा और विदुषी नामक
महिलाऐं शिक्षा के क्षेत्र में योगदान हेतु आज भी पूजनीय हैं ,जिन्होंने राष्ट्र-निर्माण और विकास में अभूतपूर्व योगदान दिया |
१९६१ के दहेज़
विरोधी अधिनियम द्वारा दहेज़ लेना व देना अपराध घोषित कर दिया गया मगर व्यावहारिक
रूप से कोई विशेष सुधार नहीं हो पाया|
स्वतंत्रता
प्राप्ति के बाद स्त्री की स्थिति- स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद स्त्री की दशा में
बदलाव आया| भारतीय संविधान के अनुसार उसे पुरुष के समकक्ष
अधिकार प्राप्त हुए| स्त्री शिक्षा पर बल देने के लिए स्त्रियों के
लिए निःशुल्क शिक्षा एवं छात्रवृति की व्यवस्था हुई| परिणामतः जल, थल व वायु कोई भी क्षेत्र स्त्री से अछूता नहीं रहा| १९९५ के विशेष विवाह अधिनियम ने स्त्रियों को धार्मिक व अन्य सभी प्रकार के
प्रतिबंधों से मुक्त होकर विवाह करने का अधिकार दिया, अब बहुपत्नी विवाह गैर कानूनी माना गया| स्त्रियों को भी विवाह
विच्छेद का पूरा अधिकार मिला और विधवा विवाह भी कानूनी रूप से मान्य हुआ| पत्नी पति की दासी नहीं मित्र मानी जाने लगी|
जिस प्रकार
तार के बिना
वीणा और धुरि
के बिना रथ का पहिया
बेकार होता है, उसी तरह नारी के
बिना मनुष्य का
सामाजिक जीवन।
शीतल सिंह
hi
ReplyDeletehii
DeleteThnx
ReplyDeletehi
ReplyDeleteHlw
ReplyDeleteThanks
ReplyDeleteमै निबन्ध ढूंढ रहा था पर ये आर्टिकल बहुत सहयोगी रहा है
ReplyDeletethanks for reading
DeleteNice
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